
अजमेर विवाद का अविवादित पक्ष – Amir Khusrau, Nizamuddin Auliya, Sufi Qawwali, Sufi Kalam
“अजमेरा के मायने चार चीज़ सरनाम
ख़्वाजे साहब की दरगाह कहिए, पुष्कर में अश्नान
मकराणा में पत्थर निकले सांभर लूण की खान”
-(अजमेर हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिपटिव किताब से )
ख़्वाजा साहब और अजमेर का ऐसा नाता है जैसा चन्दन और पानी का है । अजमेर सूफ़ी संतों के लिए एक ऐसा झरना है जहाँ देश और दुनिया के लोग हिरणों की तरह अपनी अध्यात्मिक प्यास बुझाने सदियों से आते रहे हैं । ख़्वाजा साहब के सन्देश और उनके मुरीदों की इंसान-दोस्ती ने सिलसिला चिश्तिया को वह शान बख़्शी है कि आज हिन्दुस्तानी साहित्य, कला और दर्शन, हर क्षेत्र में चिश्ती बुज़ुर्गों का योगदान मिलता है । इसी सिलसिले में आगे चल कर अमीर ख़ुसरौ जैसे शानदार सूफ़ी कवि हुए वहीं मुल्ला दाउद ने सब से पहला सूफ़ी प्रेमाख्यान चंदायन भी लिखा । चिश्ती सूफ़ियों ने इंसान-दोस्ती का दर्स ही नहीं दिया बल्कि वह स्वयं उदहारण बन गए । ख़्वाजा साहब की दरगाह में आज भी मांसाहार नहीं चलता । ख़्वाजा साहब के मुरीद ओ खलीफ़ा हज़रत हमीदुद्दीन नागौरी साहब ने भी अपनी ज़िन्दगी में कभी मांसाहार नहीं किया । वह राजस्थान के एक छोटे से क़स्बे नागौर में खेती बाड़ी से जीवन यापन करते थे और उनकी पत्नी कपड़े सिल कर घर का खर्च चलाती थीं । इस सिलसिले के सूफ़ी संतों ने राज-दरबार से अपनी दूरी बनाई और हिंदुस्तान में प्रचलित भजन को ही थोड़ा बदलकर क़व्वाली को ईश्वर साधना का एक अभिन्न अंग माना ।आगे चलकर क़व्वाली में विशुद्ध हिन्दुस्तानी रंग जैसे गागर, बसंत, सावन, होरी आदि जुड़ कर क़व्वाली का ही अंग बन गए ।
हाल ही में दीवान हर बिलास सरदा साहब की एक किताब ‘अजमेर हिस्टोरिकल एंड डिसक्रिप्टिव’ में मौजूद ‘दरगाह ख़्वाजा साहब’ नामी लेख पर चर्चा शुरु हुई है जिस में यह कहा गया है कि दरगाह परिसर में एक महादेव का मंदिर सन् 1911ई. तक मौजूद था, जिस की पूजा के लिए दरगाह प्रबंधन ने ही एक ब्राह्मण को नियुक्त किया था जिसे घड़ियाली कहते थे । उन्होंने यह बात जनश्रुतियों के आधार पर लिखी है । इस पूरे लेख को पढने से मालूम पड़ता है कि हर विलास सरदा साहब का इतिहासबोध शानदार है लेकिन ख़्वाजा साहब पर प्रमाणिक साहित्य उपलब्ध न होने की वजह से उन्होंने लोकश्रुतियों का भी सहारा लिया है जिस से यह लेख बहुत सारी महत्वपूर्ण जानकारियाँ देने के बाद भी विवादित बन जाता है ।
तसव्वुफ़ के इतिहास का अध्ययन करने के लिए प्रचलित इतिहास की किताबें पर्याप्त नहीं हैं । इसका इतिहास मल्फूज़ात ( उपदेशों ) मक़्तूबात ( पत्रों ) और तज़किरों ( जीवनवृत्त) में बिखरा पड़ा है । इन सब की एक सीमा यह भी है कि यह साहित्य लिखने वाले इतिहासकार नहीं थे । इन में से भी अधिकतर वो किताबें हैं जो किसी सूफ़ी के देहांत के बाद मुरीदों ने जनश्रुतियों के आधार पर लिखी हैं जिन में उनका अपना वैचारिक दृष्टिकोण भी सहज ही शामिल हो जाता है । कुछ ही साहित्य ऐसा बचता है जो सूफ़ी के जीवनकाल में ही लिखा गया है और जिसका अवलोकन स्वयं सूफ़ी बुज़ुर्ग ने किया है । चिश्तिया सिलसिले की ऐसी प्रमाणिक किताबों में फ़वायद-उल-फ़ुवाद और खैर-उल-मजालिस शामिल हैं जिन किताबों का अवलोकन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली ने स्वयं किया था । चिश्ती सिलसिले की सब से पहली किताब जिस में ख़्वाजा साहब का ज़िक्र मिलता है वह सियर-उल-औलिया है, जो ख़्वाजा साहब के देहांत के लगभग 300 साल के बाद लिखी गई । ज़ाहिर है, इस में भी ख़्वाजा साहब का जीवन-चरित्र श्रुतियों के आधार पर ही लिखा गया है । ख्व़ाजा साहब के देहांत के लगभग 500 बरस बाद बादशाह अकबर ने ख़्वाजा साहब की दरगाह पर हाजिरी दी और इस के बाद ख़्वाजा साहब पर किताबों का तांता लग गया । इस समय के लगभग सभी इतिहासकारों ने ख़्वाजा साहब पर लिखा है और ख़ूब विस्तार से लिखा है । इन किताबों में ख़्वाजा साहब के चमत्कारों का भी वर्णन किया गया है । यह प्रवृति आगे चलकर और भी बढती चली गई । हालाकि एक सूफ़ी का होना ही अपने समय की सब से बड़ी करामात है । ख़्वाजा साहब ने हिंदुस्तान में प्रेम और इंसान दोस्ती की जो पगडण्डी बनाई थी आगे चलकर वह एक महामार्ग बन गई जिस पर ख़्वाजा हमीदुद्दीन नागौरी, ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़तियार काकी, बाबा फ़रीद, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, ख़्वाजा नसीरुद्दीन चिराग़ दिल्ली और अमीर ख़ुसरौ जैसे यात्री चले । उन्होंने इस रास्ते को न सिर्फ़ रौशन किया बल्कि अपने विपुल साहित्य के ज़रिए रास्ते के दोनों और छायादार वृक्ष भी लगाए जिस से लोग आज भी लाभान्वित हो रहे हैं ।
हर बिलास सरदा साहब की किताब का प्रकाशन सन् 1911 ई. में हुआ था । इस संस्करण में कुछ तथ्यात्मक ग़लतियाँ हैं जैसे कि-
1. जहाँ-आरा बेग़म की मज़ार उन्होंने अजमेर शरीफ़ दरगाह परिसर में होना लिखा है जब कि सर्वविदित है कि जहाँआरा की मज़ार हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के दरगाह परिसर में मौजूद है ।
2. अपने लेख में उन्होंने जहाँआरा को चिश्तिया सिलसिले में मुरीद बताया है और उनकी किताब मुनिस-उल-अर्वाह का ज़िक्र किया है जब कि सूफ़ी साहित्य के अध्येताओं और जहाँआरा की किताब साहिबिया से मालूम पड़ता है कि जहाँआरा सिलसिला क़ादरिया में मुरीद हुई थीं और उनके मुर्शिद मुल्ला शाह थे जो दारा शिकोह के भी गुरु थे । जहाँआरा ने साहिबिया में अपने मुर्शिद, उनके जीवन और अपने मुरीद होने पर विस्तार से लिखा है । यहाँ साहिबिया का वह अंश उद्धृत किया जाता है –
“इस मुख़्तसर रिसाला में मुर्शिद वाला मुल्ला शाह की पाक ज़िंदगी और सआ’दतों से भरे हुए वाक़िआ’त का बयान है जो इस ज़मीमा-ए-बे-बिज़ाअ’त के दस्तगीर और मुर्शिद-ए-रौशन ज़मीर हैं ।
इस के साथ इन औराक़ में इस ज़मीमे से अपना भी कुछ-कुछ अहवाल-ए-पुर- इख़्तिलाल क़लम-बंद किया है कि इस फ़क़ीरा के दिल में किस तरह तलब-ओ-आगही का ज़ौक़ पैदा हुआ, कैसे हज़रत-ए-वाला से उल्फ़त-ओ-अ’क़ीदत पैदा हुई और मैं ने हज़रत मुल्ला शाह का दामन थामा, इस में कुछ वो हालात दर्ज हैं जो इस रिसाला की तालीफ़ का सबब बने जिस का नाम फ़ुक़रा-ए-बाबुल्लाह की इस ख़ादिमा और हज़रत मुल्ला शाह की बारगाह की इस दरयूज़ा-गर ने रिसाला-ए-साहिबीया रखा है। क़लम-ए-शिकस्ता ज़बाँ को ये मजाल कहाँ कि हज़रत की किताब-ए-औसाफ़ का एक हर्फ़ भी सही तौर पर लिख दे और मुझ आ’जिज़ा की ज़बान-ए-कज-मज बयाँ में ये क़ुदरत कहाँ कि वो इस मुर्शिद-ए-कामिल की सिफ़ात-ए-हसना का (क़र्न दर क़र्न मुद्दत याबी के बा-वस्फ़) कोई शुबह कर सके लेकिन हज़रत के अहवाल-ए-सआ’दत के बयाँ को अपने लिए फ़ैज़-ओ-बरकत का मूजिब मानते हुए मैं ने इस मौज़ू’ पर क़लम उठाया है।“
3. घड़ियाली शब्द का प्रयोग घड़ियाल बजाने वाले के लिए किया जाता है जो समय बताता है । दरगाह में नमाज़ और रौशनी आदि का समय बताने के लिए घड़ियाली की व्यवस्था थी । बाबा बुल्ले शाह जी ने भी इस शब्द का प्रयोग अपनी काफ़ी में किया है –
“घड़िआली दियो निकाल नी ।
अज्ज पी घर आया लाल नी ।
घड़ी घड़ी घड़िआल बजावे, रैण वसल दी पिआ घटावे,
मेरे मन दी बात जो पावे, हत्थों चा सुट्टो घड़िआल नी ।
अज्ज पी घर आया लाल नी”
बा’द में इस किताब का एक और संस्करण सन् 1941 ई. में छपा जिस में जहाँआरा की मज़ार के विषय में हुई भूल को ठीक किया गया और वहाँ हूर-उल निसा अथवा चिमनी बेग़म की मज़ार बताई गई। इस संस्करण में भी जहाँआरा को चिश्तिया सिलसिले की मुरीदा ही बताया गया है । दरगाह ख़्वाजा साहब के स्थापत्य पर हर बिलास सरदा जी का लेख विलक्षण है।
दरगाहों और दूसरे मुस्लिम स्मारकों के संरक्षण पर हर विलास सरदा जी के विचार जानना आज और भी आवश्यक हो गया है । इस सन्दर्भ में एक किताब Speeches and writings of Har bilas Sarda महत्वपूर्ण है जिस में उनके भाषण और लेख संगृहीत हैं। यह किताब 1935 में वैदिक यन्त्रालय अजमेर से छपी है। इस किताब में प्राचीन स्मारकों के संरक्षण (संशोधन) विधेयक पर एक भाषण है जो लेजिस्लेटिव असेंबली, शिमला में, 29 सितंबर, सन् 1931 ई. को दिया गया । इस के कुछ अंश प्रस्तुत हैं –
“ऐसे लोग इस पवित्र भूमि के पास आएं,
और इस जादुई बंजर भूमि पर शांति से गुजरें;
लेकिन इस के अवशेषों को बख्श दें—
किसी व्यस्त हाथ से
इन दृश्यों को और अधिक विकृत न करें,
जो पहले ही विकृत हो चुके हैं!
इन वेदियों को इस उद्देश्य से नहीं बनाया गया था,
उन अवशेषों का सम्मान करें जिन्हें कभी राष्ट्रों ने पूजा था:
ताकि हमारे देश का नाम कलंकित न हो,
और तुम्हें उस स्थान पर समृद्धि प्राप्त हो
प्रेम और जीवन की हर ईमानदार खुशी से प्रिय
जहां तुम्हारी जवानी पली-बढ़ी थी।”
— बायरन, चाइल्ड हैराल्ड
“महोदय, यह विधेयक आंशिक रूप से 1904 के प्राचीन स्मारकों संरक्षण अधिनियम में मौजूद प्रावधानों को समाप्त करने के लिए बनाया गया है। लॉर्ड कर्ज़न की आत्मा अवश्य ही गहरे दुख और पीड़ा के साथ देख रही होगी कि उनकी कुछ सबसे प्रिय आशाओं को ध्वस्त किया जा रहा है, उस कार्य को नष्ट किया जा रहा है, जिस पर उन्हें सही मायने में गर्व था, और जिसके आरंभ के साथ उनकी स्मृति इस देश में हमेशा जुड़ी रहेगी।
महोदय, इस विधेयक का उद्देश्य, स्पष्ट रूप से कहें तो, भारत की कुछ सबसे प्रिय संपत्तियों, सबसे पवित्र वस्तुओं, प्राचीन महानता के अवशेषों और सबसे मूल्यवान खजानों को—जिन्हें दुनिया में कोई भी कीमत खरीद नहीं सकती—भारत से हटाने को कानूनी मान्यता देना है। और यह सब “भारत की पवित्र धरोहर के संरक्षण,” “वैज्ञानिक अनुसंधान” और “सभ्यता की सहायता” के नाम पर किया जा रहा है।
महोदय, यह कितना बड़ा अन्याय है जो किसी भी देश या किसी भी समाज के साथ हुआ हो, लेकिन इसे अंजाम देने वाले हमेशा यह घोषणा करते हुए इसे शुरू करते हैं कि वे अपने पीड़ितों की सहायता करना चाहते हैं या सभ्यता और संस्कृति की उन्नति के लिए काम कर रहे हैं” ।
“जहां तक भारतीय प्राचीन वस्तुओं और कला कृतियों का सवाल है, यूरोप इनसे भरा पड़ा है। भारत के सभी प्रांतों को छान मारा गया है, इसके हर कोने-अंतरे की खोज की गई है, और देश के विभिन्न हिस्सों में दबे या सतह पर पड़ी प्राचीन वस्तुएं और कला कृतियां—धातु के बर्तन, मूर्तियां, पत्थर और तांबे की पट्टियां, चित्र, पुरानी आभूषण सामग्री और पुरानी मिट्टी के बर्तन, चाहे वे प्रागैतिहासिक हों या ऐतिहासिक—सब ले जाई गई हैं। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क, हॉलैंड, ऑस्ट्रिया और अमेरिका के संग्रहालय इनसे भरे पड़े हैं, और हमारी प्रिय संपत्तियों की रक्षा करने में हमारी असहायता और कमजोरी पर हंस रहे हैं” ।
“और मैं कहता हूं, महोदय, कि भारत में किसी भी मुस्लिम संत के अवशेषों को बाहर निकालने के किसी भी प्रयास को मैं भय और घृणा के साथ देखूंगा। सभी भारतीय, चाहे उनका धर्म या आस्था जो भी हो, चाहे उनकी संस्कृति जो भी हो, मुस्लिम संतों और महान व्यक्तियों के उन अवशेषों को, जो टीले और खंडहरों के नीचे दफन हैं, पवित्र मानते हैं और उन्हें किसी भी शोषणकारी द्वारा परेशान किए बिना संरक्षित रखने का कर्तव्य समझते हैं।
मैं भारत से उन पवित्र अवशेषों को किसी भी देश में ले जाने के सभी प्रयासों की निंदा करूंगा और उनका विरोध करूंगा। यह सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि उन्हें एक पवित्र धरोहर के रूप में संभालकर रखें, और हम इसे अपना दायित्व मानते हैं कि इन अवशेषों को भारत से हटाए जाने से रोकें”।
आज ख़्वाजा साहब की दरगाह पर जो विवाद कर रहे हैं उन्हें हर बिलास शारदा जी का यह भाषण ज़रूर पढ़ना चाहिए ।
ऑरनल्ड टाइन बी, अपनी किताब An Historians Approach To Religion (मज़हब मुवर्रिख़ की नज़र में) लिखते हैं –
“सभी जीवित धर्मों को उनके फलों द्वारा एक गहन व्यावहारिक परीक्षा से गुजरना होगा। आप उन्हें उनके फलों से पहचानेंगे। किसी भी धर्म की व्यावहारिक परीक्षा हमेशा और हर जगह यह होती है कि वह किस हद तक मानव आत्माओं को पीड़ा और पाप की चुनौतियों का सामना करने में मदद करता है ।”
(“All the living religions are going to be put to a searching practical test by their fruits. You shall know them the practical test of a religion, always and everywhere is to success or failure in helping human souls to respond to the challenges of suffering and sin”)
ख़्वाजा साहब की दरगाह इन सब पैमानों पर पूरी उतरती है । इब्न-ए-बतूता ने लिखा है कि दिमश्क़ में एक वक़्फ़ था जिसकी आमदनी सिर्फ़ टूटे हुए दिलों को जोड़ने में सर्फ़ की जाती थी। सूफ़ी-संतों की ज़िंदगियाँ ख़ुद इस तरह का वक़्फ़ बन गई थीं। गरेबाँ का चाक हो या टूटा हुआ दिल वो सीने और जोड़ने को मक़्सद-ए-हयात समझते थे । ख़्वाजा साहब का सन्देश – “मुहब्बत सब से और नफ़रत किसी से नहीं” आज भी सिलसिला चिश्तिया का मूल मंत्र है ।
-सुमन मिश्र